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श्रीमद भगवद्गीता अध्याय 3 कर्म योग

श्रीमद भगवद्गीता अध्याय 3 कर्म योग हिन्दी अर्थ सहित 

भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 1   ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन। तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥  अर्जुन ने कहा -  हे जनार्दन! हे केशव! यदि आप निष्काम-कर्म मार्ग की अपेक्षा ज्ञान-मार्ग को श्रेष्ठ समझते है तो फिर मुझे भयंकर कर्म (युद्ध) में क्यों लगाना चाहते हैं ?   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 2  व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे । तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌ ॥  आप अनेक अर्थ वाले शब्दों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं, अत: इनमें से मेरे लिये जो एकमात्र श्रेयस्कर हो उसे कृपा करके निश्चय-पूर्वक मुझे बतायें, जिससे मैं उस श्रेय को प्राप्त कर सकूँ |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 3  लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ । ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ ॥   हे निष्पाप अर्जुन! इस संसार में आत्म-साक्षात्कार की दो प्रकार की विधियाँ पहले भी मेरे द्वारा कही गयी हैं, ज्ञानियों के लिये ज्ञान-मार्ग (सांख्य-योग) और योगियों के लिये निष्काम कर्म-मार्ग (भक्ति-योग) नियत है |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 4  न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते । न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥  मनुष्य न तो बिना कर्म किये कर्म-बन्धनों से मुक्त हो सकता है और न ही कर्मों के त्याग (सन्यास) मात्र से सफ़लता (सिद्धि) को प्राप्त हो सकता है |    भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 5  न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।   कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥  श्री भगवान ने कहा :- इसमें कोई संदेह नहीं कि कोई मनुष्य किसी भी समय एक क्षण भी कर्म किए बिना रह सकता है | क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा कर्म करने के लिए बाध्य है |    भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 6  कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ । इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥  श्री भगवान ने कहा :- ऐसा व्यक्ति जो कर्म-इन्द्रियों को हठपूर्वक वश में तो करता है किन्तु मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, ऎसा मूर्ख मनुष्य मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहलाता है |    भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 7  यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥  श्री भगवान ने कहा :-  हे अर्जुन ! जो मनुष्य मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करके आसक्ति रहित होकर समस्त इन्द्रियों के द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 8  नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥  श्री भगवान ने कहा :-  हे अर्जुन! तू अपना नियत कर्तव्य-कर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है, कर्म न करने से तो तेरी यह जीवन-यात्रा भी सफ़ल नही हो सकती है।    भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 9  यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।    तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥     श्री भगवान ने कहा :-  यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 10  सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः | अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ||  श्री भगवान ने कहा :- प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 11  देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।     परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥  श्री भगवान ने कहा इस यज्ञ के द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवता तुम लोगों की उन्नति करेंगे, इस तरह एक-दूसरे की उन्नति करते हुए तुम लोग परम-कल्याण (परमात्मा) को प्राप्त हो जाओगे |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 12  इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः । तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ॥  श्री भगवान ने कहा यज्ञ द्वारा उन्नति को प्राप्त देवता तुम लोगों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे, किन्तु जो मनुष्य देवताओं द्वारा दिए हुए सुख-भोगों को उनको दिये बिना ही स्वयं भोगता है, उसे निश्चित-रूप से चोर समझना चाहिये।   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 13  यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः | भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌ ||   श्री भगवान ने कहा यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 14  अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।  यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥  श्री भगवान ने कहा  सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा की उत्पत्ति यज्ञ से होती है और यज्ञ की उत्पत्ति नियत-कर्म (वेदाज्ञानुसार कर्म) के करने से होती है |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 15  कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ । तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥  श्री भगवान ने कहा नियत कर्मों का विधान वेद में निहित है और वेद को शब्द-रूप से अविनाशी परमात्मा से साक्षात् उत्पन्न समझना चाहिये, इसलिये सर्वव्यापी परमात्मा ब्रह्म-रूप में यज्ञ में सदा स्थित रहते हैं |    भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 16  एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥   श्री भगवान ने कहा हे पृथापुत्र! जो मनुष्य जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र (नियत-कर्म) का अनुसरण नहीं करता हैं, वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है। ऎसा मनुष्य इन्द्रियों की तुष्टि के लिये व्यर्थ ही जीता है |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 17  यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥   श्री भगवान ने कहा  परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही आनन्द प्राप्त कर लेता है तथा वह अपनी आत्मा मे ही पूर्ण-सन्तुष्ट रहता है, उसके लिए कोई नियत-कर्म (कर्तव्य) शेष नहीं रहता है |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 18  नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।  न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥  संचय ने भगवान श्री कृष्ण की बातों को आगे बढ़ाते हुए कहा ..... उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 19  तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥  श्री भगवान ने कहा ... अत: कर्म-फ़ल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर कर्म करते रहना चाहिये क्योंकि अनासक्त भाव से निरन्तर कर्तव्य-कर्म करने से मनुष्य को एक दिन परमात्मा की प्रप्ति हो जाती है |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 20  कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।     लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥  श्री भगवान ने कहा :- जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 21  यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।  स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥  श्री भगवान ने कहा :-  महापुरुष या श्रेष्ठ पुरुष जिस प्रकार से आचरण करते हैं, अन्य पुरुष भी ठीक उसी प्रकार से आचरण करने लगते हैं | श्रेष्ठ पुरुष अपने कर्मों से जिस प्रकार का आदर्श समाज में प्रस्तुत करते हैं, समस्त मानव समुदाय उसी का अनुसरण करने लगता है |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 22  न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।    नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥     हे पृथापुत्र ! इन तीनों लोकों में मेरे लिए कोई भी कर्तव्य कर्म शेष नहीं है, और न ही ऐसी कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु है जो मेरे लिए अप्राप्य है | फिर भी मैं कर्तव्य कर्म करता रहता हूँ |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 23  यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।  हे पार्थ! यदि मैं नियत-कर्मों को सावधानी-पूर्वक न करूँ तो यह निश्चित है कि सभी मनुष्य मेरे ही मार्ग का ही अनुगमन करेंगे।   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 24  यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌ ।  संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥  श्री भगवान ने कहा इसलिए यदि मैं भी नियत कर्म न करूँ, तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायेंगे और मैं संकरता को करने वाला होऊँगा तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला कहलाऊँगा |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 25  सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।    कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌ ॥  श्रीभगवान ने कहा :- हे भरतवंशी ! जिस प्रकार अज्ञानी मनुष्य फ़ल की इच्छा से कार्य (सकाम-कर्म) करते हैं, उसी प्रकार विद्वान मनुष्य को फ़ल की इच्छा के बिना संसार के कल्याण के लिये कार्य करना चाहिये।   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 26  न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌ । जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌ ॥    विद्वान महापुरूष को चाहिए कि वह फ़ल की इच्छा वाले (सकाम-कर्मी) अज्ञानी मनुष्यों को कर्म करने से रोके नही जिससे उनकी बुद्धि भ्रमित न हो, बल्कि स्वयं कर्तव्य-कर्म को भली-प्रकार से करता हुआ उनसे भी भली-भाँति कराते रहना चाहिये।    भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 27  प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।    अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥  श्री भगवान ने कहा :-  वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 28  तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।  गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥  श्री भगवान ने कहा  हे महाबाहु! परमतत्व को जानने वाला महापुरूष इन्द्रियों को और इन्द्रियों की क्रियाशीलता को प्रकृति के गुणों के द्वारा करता हुआ मानकर कभी उनमें आसक्त नहीं होता है |    भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 29  प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌ ॥  प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करें |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 30  मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा । निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥  श्री भगवान ने कहा  मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 31  ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ॥  श्री भगवान ने कहा  जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 32  ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ ।  सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥  श्री भगवान ने कहा परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 33  सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥  श्री भगवान ने कहा सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान्‌ भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 34  इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।    तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥  श्री भगवान ने कहा :- प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग (लगाव) और द्वेष (घृणा) छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान्‌ शत्रु हैं ।   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 35  श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।       स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥  श्री भगवान ने कहा अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है |   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 36  अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥  श्री अर्जुन ने कहा हे कृष्ण ! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ?   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 37  काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥  श्री भगवान ने कहा रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान ।   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 38  धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च। यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥  श्री भगवान ने कहा जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है ।  भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 39  आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।    कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥  श्री भगवान ने कहा :-  हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है ।   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 40  इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते । एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌ ॥  श्री भगवान ने कहा इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं । यह काम मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है ।  भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 41  तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ । पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌ ॥  श्री भगवान ने कहा  हे भरतवंशियों मे श्रेष्ठ ! तू प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके और आत्म-ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार में बाधा उत्पन्न करने वाली इन महान-पापी कामनाओं का ही बल-पूर्वक समाप्त कर।  भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 42  इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥  श्री भगवान ने कहा   हे अर्जुन! इस जड़ पदार्थ शरीर की अपेक्षा इन्द्रियाँ श्रेष्ठ है, इन्द्रियों की अपेक्षा मन श्रेष्ठ है, मन की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ है तू वही सर्वश्रेष्ठ शुद्ध स्वरूप आत्मा है।   भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 43  एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।   जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌ ॥    श्री भगवान ने कहा  इस प्रकार हे महाबाहु अर्जुन ! स्वयं को मन और बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा-रूप समझकर, बुद्धि के द्वारा मन को स्थिर करके तू कामनाओं रूपी दुर्जय शत्रुओं को मार ।  ...................................................................................  ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः॥  इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में कर्म-योग नाम का तीसरा अध्याय संपूर्ण हुआ॥  ॥ राधे कृष्ण ॥   पूरी भगवदगीता यहाँ से पढ़ें - 1. पहला अध्याय 2. दूसरा अध्याय 3. तीसरा अध्याय 4. चौथा अध्याय 5. पांचवां अध्याय 6. छठवाँ अध्याय 7. सातवां अध्याय 8. आठवां अध्याय 9. नौवां अध्याय 10. दसवां अध्याय 11. ग्यारहवां अध्याय 12. बारहवां अध्याय  13. तेरहवां अध्याय 14. चौदहवां अध्याय 15. पंद्रहवां अध्याय 16. सोलहवां अध्याय 17. सत्रहवां अध्याय 18. अट्ठरहवां अध्याय  - SANSKRIT SHLOK HINDI    Shrimad-Bhagwadgeeta-Adhyay-4-karma-yog-hindi, श्रीमद भगवद्गीता अध्याय 43 कर्म योग हिन्दी अर्थ सहित, Bhagwatgeeta adhyay 3 hindiShrimad-Bhagwadgeeta-Adhyay-4-karma-yog-hindi, श्रीमद भगवद्गीता अध्याय 43 कर्म योग हिन्दी अर्थ सहित, Bhagwatgeeta adhyay 3 hindi
Bhagwadgeeta Adhyay 3 Karma yog hindi

प्रस्तावना

भगवदगीता के तीसरे अध्याय का नाम कर्म योग है । इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण जी के द्वारा कर्म की प्रधानता के आधार पर अर्जुन को दिए गए उपदेशों के आधार पर ही इस अध्याय का नाम कर्म योग रखा गया है । 

इस अध्याय के २१वें श्लोक में ही भगवान कर्म को मूल मानकर और उसकी प्रधान को सिद्ध करते हुए कहते हैं, कि हे अर्जुन ! महा पुरुष जिस प्रकार से आचरण करते हैं, अन्य सामान्य लोग भी ठीक उसी प्रकार से आचरण करने लगते हैं । और श्रेष्ठ पुरुष जिस प्रकार समाज को जो रास्ता दिखाते हैं पूरा समाज उसी रास्ते चल देता है । 

इसी अध्याय के २२वें श्लोक में भगवान कहते हैं, कि हे अर्जन ! सम्पूर्ण जगत में ऐसा कोई कर्म नहीं है, जिसे मैं कर नहीं पाऊं और न ही ऐसी कोई वस्तु है, जो मेरे लिए अप्राप्य है, फिर भी मैं कर्तव्य कर्म करता रहता हूं, ताकि सम्पूर्ण संसार मेरे द्वारा दिखाए गए सात्विक मार्ग पर मेरा अनुसरण करके चले ।

इस अध्याय की महत्ता इतनी महान है, कि यदि इस अध्याय का  अनुसरण किया जाए तो साधारण व्यक्ति भी श्रेष्ठ कर्मों से महान बन सकता है ।


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 1


ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥

अर्जुन ने कहा - 
हे जनार्दन! हे केशव! यदि आप निष्काम-कर्म मार्ग की अपेक्षा ज्ञान-मार्ग को श्रेष्ठ समझते है तो फिर मुझे भयंकर कर्म (युद्ध) में क्यों लगाना चाहते हैं ?


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 2

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌ ॥

आप अनेक अर्थ वाले शब्दों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं, अत: इनमें से मेरे लिये जो एकमात्र श्रेयस्कर हो उसे कृपा करके निश्चय-पूर्वक मुझे बतायें, जिससे मैं उस श्रेय को प्राप्त कर सकूँ |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 3

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ ॥ 

हे निष्पाप अर्जुन! इस संसार में आत्म-साक्षात्कार की दो प्रकार की विधियाँ पहले भी मेरे द्वारा कही गयी हैं, ज्ञानियों के लिये ज्ञान-मार्ग (सांख्य-योग) और योगियों के लिये निष्काम कर्म-मार्ग (भक्ति-योग) नियत है |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 4

न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥

मनुष्य न तो बिना कर्म किये कर्म-बन्धनों से मुक्त हो सकता है और न ही कर्मों के त्याग (सन्यास) मात्र से सफ़लता (सिद्धि) को प्राप्त हो सकता है |



भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 5

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।
  कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥

श्री भगवान ने कहा :-
इसमें कोई संदेह नहीं कि कोई मनुष्य किसी भी समय एक क्षण भी कर्म किए बिना रह सकता है | क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा कर्म करने के लिए बाध्य है |



भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 6

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥

श्री भगवान ने कहा :-
ऐसा व्यक्ति जो कर्म-इन्द्रियों को हठपूर्वक वश में तो करता है किन्तु मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, ऎसा मूर्ख मनुष्य मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहलाता है |



भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 7

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥

श्री भगवान ने कहा :-
 हे अर्जुन ! जो मनुष्य मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करके आसक्ति रहित होकर समस्त इन्द्रियों के द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 8

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥


श्री भगवान ने कहा :-
 हे अर्जुन! तू अपना नियत कर्तव्य-कर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है, कर्म न करने से तो तेरी यह जीवन-यात्रा भी सफ़ल नही हो सकती है।



भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 9

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
   तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥
   
श्री भगवान ने कहा :- 
यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 10

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः |
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ||

श्री भगवान ने कहा :-
प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 11

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
    परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥

श्री भगवान ने कहा
इस यज्ञ के द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवता तुम लोगों की उन्नति करेंगे, इस तरह एक-दूसरे की उन्नति करते हुए तुम लोग परम-कल्याण (परमात्मा) को प्राप्त हो जाओगे |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 12

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ॥

श्री भगवान ने कहा
यज्ञ द्वारा उन्नति को प्राप्त देवता तुम लोगों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे, किन्तु जो मनुष्य देवताओं द्वारा दिए हुए सुख-भोगों को उनको दिये बिना ही स्वयं भोगता है, उसे निश्चित-रूप से चोर समझना चाहिये।


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 13

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः |
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌ ||


श्री भगवान ने कहा
यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 14

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
 यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥

श्री भगवान ने कहा 
सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा की उत्पत्ति यज्ञ से होती है और यज्ञ की उत्पत्ति नियत-कर्म (वेदाज्ञानुसार कर्म) के करने से होती है |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 15

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥

श्री भगवान ने कहा
नियत कर्मों का विधान वेद में निहित है और वेद को शब्द-रूप से अविनाशी परमात्मा से साक्षात् उत्पन्न समझना चाहिये, इसलिये सर्वव्यापी परमात्मा ब्रह्म-रूप में यज्ञ में सदा स्थित रहते हैं |



भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 16

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥


श्री भगवान ने कहा
हे पृथापुत्र! जो मनुष्य जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र (नियत-कर्म) का अनुसरण नहीं करता हैं, वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है। ऎसा मनुष्य इन्द्रियों की तुष्टि के लिये व्यर्थ ही जीता है |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 17

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥


श्री भगवान ने कहा 
परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही आनन्द प्राप्त कर लेता है तथा वह अपनी आत्मा मे ही पूर्ण-सन्तुष्ट रहता है, उसके लिए कोई नियत-कर्म (कर्तव्य) शेष नहीं रहता है |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 18

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
 न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥

संचय ने भगवान श्री कृष्ण की बातों को आगे बढ़ाते हुए कहा .....
उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 19

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥

श्री भगवान ने कहा ...
अत: कर्म-फ़ल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर कर्म करते रहना चाहिये क्योंकि अनासक्त भाव से निरन्तर कर्तव्य-कर्म करने से मनुष्य को एक दिन परमात्मा की प्रप्ति हो जाती है |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 20

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
    लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥

श्री भगवान ने कहा :-
जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 21

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
 स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥

श्री भगवान ने कहा :- 
महापुरुष या श्रेष्ठ पुरुष जिस प्रकार से आचरण करते हैं, अन्य पुरुष भी ठीक उसी प्रकार से आचरण करने लगते हैं | श्रेष्ठ पुरुष अपने कर्मों से जिस प्रकार का आदर्श समाज में प्रस्तुत करते हैं, समस्त मानव समुदाय उसी का अनुसरण करने लगता है |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 22

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
   नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥
   
हे पृथापुत्र ! इन तीनों लोकों में मेरे लिए कोई भी कर्तव्य कर्म शेष नहीं है, और न ही ऐसी कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु है जो मेरे लिए अप्राप्य है | फिर भी मैं कर्तव्य कर्म करता रहता हूँ |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 23

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।

हे पार्थ! यदि मैं नियत-कर्मों को सावधानी-पूर्वक न करूँ तो यह निश्चित है कि सभी मनुष्य मेरे ही मार्ग का ही अनुगमन करेंगे।


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 24

यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌ ।
 संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥

श्री भगवान ने कहा
इसलिए यदि मैं भी नियत कर्म न करूँ, तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायेंगे और मैं संकरता को करने वाला होऊँगा तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला कहलाऊँगा |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 25

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
   कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌ ॥

श्रीभगवान ने कहा :-
हे भरतवंशी ! जिस प्रकार अज्ञानी मनुष्य फ़ल की इच्छा से कार्य (सकाम-कर्म) करते हैं, उसी प्रकार विद्वान मनुष्य को फ़ल की इच्छा के बिना संसार के कल्याण के लिये कार्य करना चाहिये।


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 26

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌ ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌ ॥ 

 विद्वान महापुरूष को चाहिए कि वह फ़ल की इच्छा वाले (सकाम-कर्मी) अज्ञानी मनुष्यों को कर्म करने से रोके नही जिससे उनकी बुद्धि भ्रमित न हो, बल्कि स्वयं कर्तव्य-कर्म को भली-प्रकार से करता हुआ उनसे भी भली-भाँति कराते रहना चाहिये। 


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 27

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
   अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥

श्री भगवान ने कहा :- 
वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 28

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
 गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥

श्री भगवान ने कहा 
हे महाबाहु! परमतत्व को जानने वाला महापुरूष इन्द्रियों को और इन्द्रियों की क्रियाशीलता को प्रकृति के गुणों के द्वारा करता हुआ मानकर कभी उनमें आसक्त नहीं होता है | 


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 29

प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌ ॥

प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करें |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 30

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥

श्री भगवान ने कहा 
मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 31

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ॥

श्री भगवान ने कहा 
जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 32

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ ।
 सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥

श्री भगवान ने कहा
परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 33

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥

श्री भगवान ने कहा
सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान्‌ भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 34

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
   तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥

श्री भगवान ने कहा :-
प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग (लगाव) और द्वेष (घृणा) छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान्‌ शत्रु हैं ।


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 35

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
      स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥

श्री भगवान ने कहा
अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है |


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 36

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥

श्री अर्जुन ने कहा
हे कृष्ण ! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ?


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 37

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥

श्री भगवान ने कहा
रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान ।


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 38

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥

श्री भगवान ने कहा
जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है ।

भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 39

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
   कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥

श्री भगवान ने कहा :- 
हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है ।


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 40

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌ ॥

श्री भगवान ने कहा
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं । यह काम मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है ।

भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 41

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌ ॥

श्री भगवान ने कहा 
हे भरतवंशियों मे श्रेष्ठ ! तू प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके और आत्म-ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार में बाधा उत्पन्न करने वाली इन महान-पापी कामनाओं का ही बल-पूर्वक समाप्त कर।

भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 42

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥

श्री भगवान ने कहा 
 हे अर्जुन! इस जड़ पदार्थ शरीर की अपेक्षा इन्द्रियाँ श्रेष्ठ है, इन्द्रियों की अपेक्षा मन श्रेष्ठ है, मन की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ है तू वही सर्वश्रेष्ठ शुद्ध स्वरूप आत्मा है।


भगवदगीता अध्याय 3  श्लोक 43

एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
  जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌ ॥
  
श्री भगवान ने कहा 
इस प्रकार हे महाबाहु अर्जुन ! स्वयं को मन और बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा-रूप समझकर, बुद्धि के द्वारा मन को स्थिर करके तू कामनाओं रूपी दुर्जय शत्रुओं को मार ।

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ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः॥

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में कर्म-योग नाम का तीसरा अध्याय संपूर्ण हुआ॥

॥ राधे कृष्ण ॥


पूरी भगवदगीता हाँ से पढ़ें -

4. चौथा अध्याय
5. पांचवां अध्याय
6. छठवाँ अध्याय
7. सातवां अध्याय
8. आठवां अध्याय
9. नौवां अध्याय
10. दसवां अध्याय
11. ग्यारहवां अध्याय
12. बारहवां अध्याय 
13. तेरहवां अध्याय
14. चौदहवां अध्याय
15. पंद्रहवां अध्याय
16. सोलहवां अध्याय
17. सत्रहवां अध्याय
18. अट्ठरहवां अध्याय

- SANSKRIT SHLOK HINDI


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