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एनसीईआरटी संस्कृत श्लोक कक्षा 8 हिन्दी

 संस्कृत श्लोक कक्षा 8 एनसीईआरटी

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Shlok - 1 

About
इस श्लोक में गुणों और गुणवान व्यक्ति की महत्ता को विस्तार से समझाया गया है |


गुणा: गुणग्येषु गुणा भवन्ति ,
ते निर्गुर्णं प्राप्य भवन्ति दोषा : ।
आस्वाद्यतोया: प्रवहन्ति नद्य: ,
समुद्रमासाद्य भवन्तयपेया : ।।

अर्थात्
जो गुण और अवगुण में भेद करने वाले हैं अर्थात् जो गुणों और अवगुणों को भली प्रकार से जानने वाले हैं, वास्तव में वे ही गुणों के वास्तविक मोल को बता पाते हैं | जिन व्यक्तियों में ये सामर्थ्य ही नहीं है, कि वे सही - गलत अर्थात गुण अवगुण को पहचान पाएं उनके लिए सब कुछ सामान्य होता है | इसलिए हमें उन व्यक्तियों से सानिध्य में रहना चाहिए जो आपके गुण और दोषों को पहचान कर आपका सटीक मार्गदर्शन कर सकें |
कभी भी ऐसे लोगों की संगति नहीं करनी चाहिए, जो आपके गुणों और दोषों में भेद न कर पाएं | क्योंकि यदि हम ऐसे लोगों की संगति में रहते हैं तो हमारे गुण भी धीरे धीरे समाप्त हो जाते हैं और दोषों में परिवर्तित हो जाते हैं |
ठीक उसी प्रकार यदि नदी का जल नदी में गिरता है तो मीठा ही होता है, लेकिन जब वही जल समुद्र में जाता है तो खारा हो जाता है अर्थात् गुणहीन हो जाता है |

संदेश 
हमें सदा गुणी व्यक्तियों के सानिध्य में रहना चाहिए |


Shlok - 2 

About
इस श्लोक में साहित्य, संगीत और कला की मानव जीवन में क्या विशेषता है, उसको बताया गया है |

साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।
तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥

अर्थात्
जो मनुष्य साहित्य, संगीत और कला से विहीन है वह साक्षात पूंछ और सींगों से रहित पशु के समान है। ये पशुओं के लिए बड़े सौभाग्य की बात है, कि वह बिना घास खाए ही जीवित रहता है |

संदेश

ऐसा मनुष्य जिसे साहित्य, संगीत और कला में कोई रुचि नहीं है, वह मनुष्य सींग और पूंछ न होते हुए भी पशु के समान है | वह पशु के समान तो है, लेकिन वह घास नहीं खाता यह पशुओं के लिए बहुत ही सौभाग्य की बात है | क्योंकि यदि वह घास खाता तो पशुओं को खाने के लिए चार की दिक्कत हो जाती | 


Shlok - 3

About
इस श्लोक के मध्य से मनुष्य की बुराइयों से अवगत कराते हुए सत्कर्म का रास्ता दिखाया गया है |

लुब्धस्य नश्यति यशः पिशुनस्य मैत्री
नष्टक्रियस्य कुलमर्थपरस्य धर्मः |
विद्याफलं व्यसनिनः कृपणस्य सौख्यं
राज्यं प्रमतसचिवस्य नराधिपस्य ||

अर्थात्
लालची व्यक्ति का यश, चुगलखोर की मित्रता, कर्म से हीन व्यक्ति का कुल,धन को अधिक महत्त्व देने वाले का धर्म, बुरी आदतों वाले का विद्या से मिलने वाला लाभ, कंजूस का सुख और प्रमाद करने वाले मन्त्री के राजा का राज्य नष्ट हो जाता है |

संदेश
हमें स्वयं एवं राष्ट्र की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए अपने कर्म करने चाहिए | 



Shlok - 4

About
इस श्लोक में संतों के आचरण एवं उनकी महानता को दर्शाया गया है |

पीत्वा रसं तु कटुकं मधुरं समानं
माधुर्यमेव जन्येन्मधुमक्षिकासौ |
संतस्तथैव सम सज्जनदुर्जनानां
श्रुत्वा वचः मधुरसुक्त रसं सृजन्ति ||

अर्थात्
जिस प्रकार मधुमक्खी मीठे और कड़वे दोनों प्रकार के रस को पीकर मिठास ही उत्पन्न करती है, ठीक उसी प्रकार सन्त लोग भी सज्जन और दुर्जन दोनों प्रकार के लोगों की बातों को एक समान सुनकर सुंदर वचन का ही सृजन करते हैं अर्थात् सुंदर वचन बोलते हैं |

संदेश
संतों एवं मधुमक्खियों के इस विशेष गुण को हमें भी अपने जीवन में उतारकर सुंदर वचन एवम आचरण वाला होना चाहिए |



Shlok - 5 

About
इस श्लोक के माध्यम से पुरुषार्थ की महत्ता को समझाया गया है |

विहाय पौरुषं यो हि दैवमेवावलम्बते |
प्रासादसिंहवत् तस्य मूर्ध्नि तिष्ठति वायसाः ||

अर्थात्
जो व्यक्ति पुरुषार्थ (कर्मों में निष्ठा) को छोड़कर भाग्य का सहारा लेते हैं अर्थात अपने सभी कार्यों को भाग्य के सहारे छोड़ देते हैं, वे महल के दरवाजे पर बने शेर की तरह होते हैं, जिनके सिर पर कौवे बैठते हैं |

संदेश 
हमें कभी भी अपने भाग्य के भरोसे नहीं रहना चाहिए | क्योंकि हमारा कल्याण केवल हमारे द्वारा किए गए सात्विक कर्मों अर्थात पुरुषार्थ के द्वारा ही हो सकता है |

भगवान श्री कृष्ण भी भगवतगीता में इस बात का समर्थन करते हैं |



Shlok - 6 

About
इस श्लोक में वृक्षों के माध्यम से वृक्षों की तरह मनुष्यों को सदाचरण अपने अंदर समाहित करने की बात कही गई है |

पुष्पपत्रफलच्छायामूलवल्कलदारुभिः |
धन्या महीरुहाः येषां विमुखं यान्ति नार्थिनः ||]

अर्थात्
फूल-पत्ते-फल-छाया-जड़-छाल और लकड़ियों से युक्त वृक्ष धन्य होते हैं | जिनसे माँगने वाले कभी भी निराश नहीं होते अर्थात वृक्ष उन्हें सहर्ष अपना सर्वस्व दे देते हैं |

संदेश
प्रत्येक व्यक्ति को वृक्षों की तरह ही सदैव दान और समर्पण की भावना रखनी चाहिए |



Shlok - 7 

About
इस श्लोक के माध्यम से मनुष्यों के विवेक के उपयोग की बात की गई है |


चिन्तनीया हि विपदां आदावेव प्रतिक्रियाः |
न कूपखन्नं युक्तं प्रदीप्ते वह्निना गृहे ||

अर्थात्
निश्चय ही विपत्तियों के शुरुआत में ही उनका समाधान खोज लेना चाहिए | क्योंकि आग से घर जलने पर कभी भी कुआं खोदना उचित नहीं है अर्थात आग लगने पर कुआं नहीं खोदा जाता |

संदेश
हमें नियत समय में ही परिस्थितियों को भांपकर उनके अनुकूल उनका समाधान खोज लेना चाहिए | यदि हम ऐसा करते हैं, तो हमें किसी भी प्रकार से हानि का सामना नहीं करना पड़ेगा |

- SANSKRIT SHLOK HINDI

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