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श्रीमद भगवद्गीता दूसरा अध्याय ज्ञान योग

श्रीमद भगवद्गीता दूसरा अध्याय ज्ञान योग हिन्दी में

(अर्जुन के शोक का कारण) भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 1  संजय उवाच तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌ । विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥  संजय ने धृतराष्ट्र से कहा....... इस प्रकार करुणा से अभिभूत, आँसुओं से भरे हुए व्याकुल नेत्रों वाले, शोकग्रस्त अर्जुन को देखकर भगवान मधुसूदन ने यह शब्द कहे ।   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 2  श्रीभगवानुवाच कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌ । अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।  भगवान श्रीहरि कृष्ण ने कहा, कि...... हे अर्जुन ! इस विपरीत स्थिति में तेरे मन में यह अज्ञान कैसे उत्पन्न हुआ ? न तो इसका जीवन के मूल्यों को जानने वाले मनुष्यों द्वारा आचरण किया गया है, और न ही इससे स्वर्ग की और न ही यश की ही प्राप्ति होती है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 3  क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥  भगवान श्रीहरि कृष्ण ने अर्जुन से कहा, कि...... इसलिए हे अर्जुन ! तू नपुंसकता को मत प्राप्त हो, यह तुझे शोभा नहीं देता है, हे शत्रुओं के दमनकर्ता ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 4  अर्जुन उवाच कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन । इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ (४)  अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, कि...... हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा ? क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही तो मेरे लिए पूजनीय हैं |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 5  गुरूनहत्वा हि महानुभावा-ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके । हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान्‌ रुधिरप्रदिग्धान्‌ ॥ (५)  अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, कि...... इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 6  न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः । यानेव हत्वा न जिजीविषाम-स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ (६)  अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, कि...... हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 7  कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः । यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥ (७)  अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, कि...... इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 8  न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌ । अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌ ॥ (८)  अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, कि...... क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 9  संजय उवाच एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप । न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥ (९)  संजय ने धृतराष्ट्र से कहा, कि...... हे राजन्‌ ! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन ने अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार स्पष्ट रूप से कहकर कि "मैं युद्ध नहीं करूंगा" फिर चुप हो गए |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 10  तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ॥ (१०)  संजय ने धृतराष्ट्र से कहा, कि...... हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले |   (सांख्ययोग का विषय)  भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 11  श्री भगवानुवाच अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ (११)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... हे अर्जुन ! तू उनके लिये शोक करता है जो शोक करने योग्य नहीं है और पण्डितों की तरह बातें करता है। जो विद्वान होते हैं, वे न तो जीवित प्राणी के लिये और न ही मृत प्राणी के लिये शोक करते |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 12  न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः । न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥ (१२)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 13  देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ (१३)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... जिस प्रकार जीवात्मा इस शरीर में बाल अवस्था से युवा अवस्था और वृद्ध अवस्था को निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस शरीर की मृत्यु होने पर दूसरे शरीर में चला जाता है, ऎसे परिवर्तन से धीर मनुष्य मोह को प्राप्त नहीं होते हैं |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 14   मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः । आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ (१४)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... हे कुंतीपुत्र! सुख-दुःख को देने वाले विषयों के क्षणिक संयोग तो केवल इन्द्रिय-बोध से उत्पन्न होने वाले सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के समान आने-जाने वाले हैं, इसलिए हे भरतवंशी! तू अविचल भाव से उनको सहन करने का प्रयत्न कर।   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 15  यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ । समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ (१५)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है  |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 16  नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥ (१६)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... असत्‌ वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्‌ का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है | अर्थात् :- शरीर का कोई अस्तित्व नहीं है और आत्मा में तो कभी परिवर्तन ही नहीं होता |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 17  अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌ । विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ (१७)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्‌- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है | अर्थात् :-  जो सभी शरीरों में व्याप्त है उस आत्मा को ही तू अविनाशी समझ, इसको नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है।    भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 18  अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः । अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥ (१८)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर | अन्य शब्दों में :- इस अविनाशी, अमाप, नित्य-स्वरूप आत्मा के ये सब शरीर नष्ट होने वाले हैं, अत: हे भरतवंशी! तू युद्ध कर।   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 19  य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌ । उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ (१९)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं, क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है ।   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 20  न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ (२०)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर से होने वाला ही है | क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है | शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 21  वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌ । कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌ ॥ (२१)  हे पृथापुत्र! जो मनुष्य इस आत्मा को अविनाशी, शाश्वत, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह मनुष्य किसी को कैसे मार सकता है या किसी के द्वारा कैसे मारा जा सकता है?    भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 22  वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ (२२)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, ठीक वैसे ही जीवात्मा भी पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है अर्थात धारण करता है  |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 23  नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ (२३)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... यह आत्मा न तो शस्त्र द्वारा काटा सकता है, न ही आग के द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया जा सकता है और न ही वायु द्वारा सुखाया जा सकता है  |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 24  अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ (२४)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... यह आत्मा न तो तोडा़ जा सकता है, न ही जलाया जा सकता है, न इसे घुलाया जा सकता है और न ही सुखाया जा सकता है, यह आत्मा शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर और सदैव एक सा रहने वाला है  |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 25  अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥ (२५)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... यह आत्मा अव्यक्त, अचिन्त्य और विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे शोक नहीं करना चाहिए |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 26  अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्‌ । तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥ (२६)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... हे महाबाहु ! यदि तू इस आत्मा को सदा जन्म लेने वाला तथा सदा मरने वाला मानता है, तो भी तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 27  जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ (२७)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म निश्चित है, अत: इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 28  अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ (२८)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... हे भरतवंशी ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट रहते है और मरने के बाद भी अदृश्य हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही इन्हे देखा जा सकता हैं, अत: शोक करने की  क्या आवश्यकता है ? अर्थात कोई आवश्यकता नहीं है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 29  आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः । आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्‌ ॥ (२९)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 30  देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत । तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ (३०)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... हे भरतवंशी ! इस आत्मा का शरीर में कभी भी वध नहीं किया जा सकता है अर्थात् आत्मा को मारा नहीं जा सकता | अत: तुझे किसी भी प्राणी के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है |   (धर्म के अनुसार युद्ध का निरूपण)  भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 31  स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ (३१)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... हे अर्जुन ! अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे भय नहीं करना चाहिए | क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 32  यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्‌ । सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌ ॥ (३२)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... हे पार्थ ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 33  अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि । ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ (३३)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 34  अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌ । सम्भावितस्य चाकीर्ति र्मरणादतिरिच्यते ॥ (३४)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... लोग सदैव तेरी बहुत समय तक रहने वाली अपकीर्ति का भी वर्णन करेंगे और सम्मानित मनुष्य के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी बढ़कर है  |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 35  भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः । येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌ ॥ (३५)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे ही महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 36  अवाच्यवादांश्च बहून्‌ वदिष्यन्ति तवाहिताः । निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌ ॥ (३६)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... तेरे शत्रु तेरी सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से कटु वचन भी कहेंगे, तेरे लिये इससे अधिक दु:खदायी और क्या हो सकता है ?   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 37  हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌ । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ (३७)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... हे कुन्तीपुत्र! यदि तू युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को प्राप्त करेगा और यदि तू युद्ध जीत गया तो पृथ्वी का साम्राज्य भोगेगा, अत: तू दृढ-संकल्प करके खड़ा हो जा और युद्ध कर |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 38  सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ (३८)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा  |   (कर्मयोग का विषय)  भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 39  एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु । बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ (३९)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... हे पार्थ ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन | जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भाँति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 40  यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते । स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌ ॥ (४०)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 41  व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन । बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌ ॥ (४१)  भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... हे अर्जुन ! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 42, 43  यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः । वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥ (४२)  कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌ । क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ (४३)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... हे पृथापुत्र! अल्प-ज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते है, जो स्वर्ग की प्राप्ति, उत्तम जन्म तथा ऎश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिये अनेक सकाम कर्म-फ़ल की विविध क्रियाओं का वर्णन करते है, इन्द्रिय-तृप्ति और ऎश्वर्यमय जीवन की कामना के कारण वे कहते है कि इससे वढ़कर और कुछ नही है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 44  भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌ । व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ (४४)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतिक ऎश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऎसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते है, उन मनुष्यों में भगवान के प्रति दृड़-संकल्पित बुद्धि नहीं होती है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 45  त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌ ॥ (४५)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... हे अर्जुन ! वेदों में मुख्य रुप से प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है इसलिए तू इन तीनों गुणों से ऊपर उठ, हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से रहित तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त आत्म-परायण बन |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 46  यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके । तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ (४६)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... सभी तरफ़ से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय के प्रति मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों से उतना ही प्रयोजन रह जाता है  |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 47  कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ (४७)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं, इसलिए तू न तो अपने-आप को कर्मों के फलों का कारण समझ और कर्म न करने में ही तेरी आसक्ति हो |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 48  योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय । सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ (४८)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... हे धनंजय! तू सफ़लता तथा विफ़लता में आसक्ति को त्याग कर सम-भाव में स्थित हुआ अपना कर्तव्य समझकर कर्म कर, ऎसी समता ही समत्व बुद्धि-योग कहलाती है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 49  दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय । बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ (४९)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... हे धनंजय ! इस समत्व बुद्धि-योग के द्वारा समस्त निन्दनीय कर्म से दूर रहकर उसी भाव से ऎसी चेतना (परमात्मा) की शरण-ग्रहण कर, सकाम कर्म के फलों को चाहने वाले मनुष्य अत्यन्त कंजूस होते हैं |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 50  बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌ ॥ (५०)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... समत्व बुद्धि-योग के द्वारा मनुष्य इसी जीवन में अपने-आप को पुण्य और पाप कर्मों से मुक्त कर लेता है। अत: तू इसी योग में लग जा, क्योंकि इसी योग के द्वारा ही सभी कार्य कुशलता-पूर्वक पूर्ण होते है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 51  कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्‌ ॥ (५१)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... इस समत्व बुद्धि-योग से ऋषि-मुनि तथा भक्त सकाम-कर्मों से उत्पन्न होने वाले फलों को त्याग कर जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर परम-पद को प्राप्त हो जाते हैं |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 52  यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति । तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ (५२)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को भलीभाँति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 53  श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला । समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ (५३)  श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि...... भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा  |   (स्थिर-प्रज्ञ पुरुष के लक्षण)  भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 54  अर्जुन उवाच स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌ ॥ (५४)  अर्जुन ने श्री भगवान से पूछा ...... हे केशव ! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?  भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 55  श्रीभगवानुवाच प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌ । आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ (५५)  श्री भगवान्‌ ने कहा -  हे पार्थ ! जब मनुष्य मनोरथ से उत्पन्न होने वाली इन्द्रिय-तृप्ति की सभी प्रकार की कामनाओं का परित्याग कर देता है, जब विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में ही सन्तोष प्राप्त करता है, तब वह मनुष्य विशुद्ध चेतना में स्थित (स्थितप्रज्ञ) कहा जाता है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 56  दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ (५६)  श्री भगवान्‌ ने कहा -  दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 57  यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ । नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (५७)  श्री भगवान्‌ ने कहा -  जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 58  यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (५८)  श्री भगवान्‌ ने कहा -  जिस प्रकार कछुवा सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, उसी प्रकार जब मनुष्य इन्द्रियों को इन्द्रिय-विषयों से सब प्रकार से खींच लेता है, तब वह पूर्ण चेतना में स्थिर होता है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 59  विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥ (५९)  श्री भगवान ने कहा -  इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले मनुष्य के विषय तो मिट जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति बनी रहती है, ऎसे स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य की आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके मिट जाती है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 60  यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ (६०)  श्री भगवान्‌ ने कहा -  हे अर्जुन ! इन्द्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि जो मनुष्य इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है, उस विवेकी मनुष्य के मन को भी बल-पूर्वक हर लेतीं है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 61  तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः । वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (६१)  श्री भगवान्‌ ने कहा -  साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है  |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 62  ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते । संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ (६२)  श्री भगवान्‌ ने कहा -  इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, ऎसी आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 63  क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ (६३)  श्री भगवान्‌ ने कहा -  क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है |  भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 64  रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌ । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ (६४)  श्री भगवान्‌ ने कहा -  अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 65  प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ (६५)  श्री भगवान्‌ ने कहा -  अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है  |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 66  नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना । न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥ (६६)  श्री भगवान्‌ ने कहा -  जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ वश में नहीं होती हैं, उस मनुष्य की न तो बुद्धि स्थिर होती है, न मन स्थिर होता है और न ही उसे शान्ति प्राप्त होती है | उस शान्ति-रहित मनुष्य को सुख किस प्रकार संभव है ?    भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 67  इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते । तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥ (६७)  श्री भगवान्‌ ने कहा -  जिस प्रकार पानी पर तैरने वाली नाव को वायु हर लेती है, उसी प्रकार विचरण करती हुई इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय पर मन निरन्तर लगा रहता है, वह एक इन्द्रिय ही उस मनुष्य की बुद्धि को हर लेती हैं |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 68  तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (६८)  श्री भगवान्‌ ने कहा -  हे महाबाहु! जिसकी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सभी प्रकार से विरक्त होकर उसके वश में रहती हैं, उसी मनुष्य की बुद्धि स्थिर रहती है।   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 69  या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ (६९)  श्री भगवान्‌ ने कहा -  जो सभी प्राणीयों के लिये रात्रि के समान है, वह बुद्धि-योग में स्थित मनुष्य के लिये जागने का समय होता है और जो समस्त प्राणीयों के लिये जागने का समय होता है, वह स्थिर-प्रज्ञ मुनि के लिए वह रात्रि के समान होता है।    भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 70  आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ । तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥   श्री भगवान्‌ ने कहा -  जिस प्रकार अनेकों नदियाँ सभी ओर से परिपूर्ण, दृड़-प्रतिष्ठा वाले समुद्र में समुद्र को विचलित किए बिना ही समा जाती हैं, उसी प्रकार सभी इच्छायें स्थित-प्रज्ञ मनुष्य में बिना विकार उत्पन्न किए ही समा जाती हैं, वही मनुष्य परम-शान्ति को प्राप्त होता है, न कि इन्द्रिय सुख चाहने वाला |   भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 71  विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः । निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥   श्री भगवान्‌ ने कहा -  जो मनुष्य समस्त भौतिक कामनाओं का परित्याग कर इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-रहित रहता है, वही परम-शांति को प्राप्त कर सकता है।    भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 72  एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥   श्री भगवान्‌ ने कहा -  हे पार्थ! यह आध्यात्मिक जीवन (ब्रह्म की प्राप्ति) का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य कभी मोहित नही होता है, यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस पथ पर स्थिति हो जाता है तब भी वह भगवद्‍प्राप्ति करता है |   .................................................................................  ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे कृष्णार्जुनसंवादे धर्मकर्मयुद्धयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः॥ इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद भगवदगीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में धर्मकर्मयुद्ध-योग नाम का पहला अध्याय संपूर्ण हुआ॥  ॥ राधे कृष्ण ॥श्रीमद भगवद्गीता पहला अध्याय अर्जुनविषाद योग , Shrimad Bhagwadgeeta Adhyay 2 Shlok in hindi, भगवद गीता अध्याय 2 श्लोक, Bhagavad Gita adhyay 2 in Sansk
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प्रस्तावना

भगवदगीता के दूसरे अध्याय का नाम " ज्ञानयोग " है ।

जैसा कि आप सभी ने पहले अध्याय में अर्जुन के विराट शोक को समझा और जाना । अर्जुन जिस स्थिति में जा चुके थे उस स्थिति में किसी भी प्रकार से युद्ध नही हो सकता और यदि युद्ध नही  होता तो महान पाप का विनाश भी असंभव था, चूंकि श्री कृष्ण जी ने महाभारत के पूरे युद्ध में अस्त्र शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की थी और इस तरह से जब अर्जुन को भी अज्ञान और स्वजन मोह ने घेर लिया तो सारा का सारा पाशा पलट गया और सभी पाण्डव शोकाकुल हो गया । 

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Bhagwadgeeta in Short Hindi

तब श्री हरि कृष्ण ने भगवदगीता रूप ज्ञान गंगा से अर्जुन को दूसरे अध्याय का ज्ञान दिया जो ज्ञान योग के रूप में विख्यात है । इस अध्याय में श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को सभी तरह से ज्ञान की शरण में जाने की दीक्षा दी और कहा कि हे अर्जुन ! ज्ञानी जन किसी भी परिस्थिति में शोक नही करते ।


(अर्जुन के शोक का कारण)
भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 1

संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌ ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा.......
इस प्रकार करुणा से अभिभूत, आँसुओं से भरे हुए व्याकुल नेत्रों वाले, शोकग्रस्त अर्जुन को देखकर भगवान मधुसूदन ने यह शब्द कहे ।


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌ ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।

भगवान श्रीहरि कृष्ण ने कहा, कि......
हे अर्जुन ! इस विपरीत स्थिति में तेरे मन में यह अज्ञान कैसे उत्पन्न हुआ ? न तो इसका जीवन के मूल्यों को जानने वाले मनुष्यों द्वारा आचरण किया गया है, और न ही इससे स्वर्ग की और न ही यश की ही प्राप्ति होती है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 3

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥

भगवान श्रीहरि कृष्ण ने अर्जुन से कहा, कि......
इसलिए हे अर्जुन ! तू नपुंसकता को मत प्राप्त हो, यह तुझे शोभा नहीं देता है, हे शत्रुओं के दमनकर्ता ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 4

अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ (४)

अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, कि......
हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा ? क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही तो मेरे लिए पूजनीय हैं |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 5

गुरूनहत्वा हि महानुभावा-ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान्‌ रुधिरप्रदिग्धान्‌ ॥ (५)

अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, कि......
इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 6

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ (६)

अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, कि......
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 7

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥ (७)

अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, कि......
इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 8

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌ ।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌ ॥ (८)

अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, कि......
क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 9

संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥ (९)

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा, कि......
हे राजन्‌ ! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन ने अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार स्पष्ट रूप से कहकर कि "मैं युद्ध नहीं करूंगा" फिर चुप हो गए |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 10

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ॥ (१०)

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा, कि......
हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले |


(सांख्ययोग का विषय)

भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 11

श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ (११)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
हे अर्जुन ! तू उनके लिये शोक करता है जो शोक करने योग्य नहीं है और पण्डितों की तरह बातें करता है। जो विद्वान होते हैं, वे न तो जीवित प्राणी के लिये और न ही मृत प्राणी के लिये शोक करते |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 12

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥ (१२)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 13

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ (१३)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
जिस प्रकार जीवात्मा इस शरीर में बाल अवस्था से युवा अवस्था और वृद्ध अवस्था को निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस शरीर की मृत्यु होने पर दूसरे शरीर में चला जाता है, ऎसे परिवर्तन से धीर मनुष्य मोह को प्राप्त नहीं होते हैं |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 14


मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ (१४)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
हे कुंतीपुत्र! सुख-दुःख को देने वाले विषयों के क्षणिक संयोग तो केवल इन्द्रिय-बोध से उत्पन्न होने वाले सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के समान आने-जाने वाले हैं, इसलिए हे भरतवंशी! तू अविचल भाव से उनको सहन करने का प्रयत्न कर।


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 15

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ (१५)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है  |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 16

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥ (१६)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
असत्‌ वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्‌ का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है |
अर्थात् :-
शरीर का कोई अस्तित्व नहीं है और आत्मा में तो कभी परिवर्तन ही नहीं होता |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 17

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌ ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ (१७)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्‌- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है |
अर्थात् :- 
जो सभी शरीरों में व्याप्त है उस आत्मा को ही तू अविनाशी समझ, इसको नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है। 


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 18

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥ (१८)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर |
अन्य शब्दों में :-
इस अविनाशी, अमाप, नित्य-स्वरूप आत्मा के ये सब शरीर नष्ट होने वाले हैं, अत: हे भरतवंशी! तू युद्ध कर।


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 19

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌ ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ (१९)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं, क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है ।


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 20

न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ (२०)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर से होने वाला ही है | क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है | शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 21

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌ ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌ ॥ (२१)

हे पृथापुत्र! जो मनुष्य इस आत्मा को अविनाशी, शाश्वत, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह मनुष्य किसी को कैसे मार सकता है या किसी के द्वारा कैसे मारा जा सकता है? 


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 22

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ (२२)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, ठीक वैसे ही जीवात्मा भी पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है अर्थात धारण करता है  |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 23

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ (२३)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
यह आत्मा न तो शस्त्र द्वारा काटा सकता है, न ही आग के द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया जा सकता है और न ही वायु द्वारा सुखाया जा सकता है  |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 24

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ (२४)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
यह आत्मा न तो तोडा़ जा सकता है, न ही जलाया जा सकता है, न इसे घुलाया जा सकता है और न ही सुखाया जा सकता है, यह आत्मा शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर और सदैव एक सा रहने वाला है  |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 25

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥ (२५)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
यह आत्मा अव्यक्त, अचिन्त्य और विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे शोक नहीं करना चाहिए |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 26

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्‌ ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥ (२६)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
हे महाबाहु ! यदि तू इस आत्मा को सदा जन्म लेने वाला तथा सदा मरने वाला मानता है, तो भी तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 27

जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ (२७)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म निश्चित है, अत: इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 28

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ (२८)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
हे भरतवंशी ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट रहते है और मरने के बाद भी अदृश्य हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही इन्हे देखा जा सकता हैं, अत: शोक करने की  क्या आवश्यकता है ? अर्थात कोई आवश्यकता नहीं है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 29

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्‌ ॥ (२९)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 30

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ (३०)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
हे भरतवंशी ! इस आत्मा का शरीर में कभी भी वध नहीं किया जा सकता है अर्थात् आत्मा को मारा नहीं जा सकता | अत: तुझे किसी भी प्राणी के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है |


(धर्म के अनुसार युद्ध का निरूपण)

भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 31

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ (३१)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
हे अर्जुन ! अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे भय नहीं करना चाहिए | क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 32

यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्‌ ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌ ॥ (३२)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
हे पार्थ ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 33

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ (३३)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 34

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌ ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति र्मरणादतिरिच्यते ॥ (३४)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
लोग सदैव तेरी बहुत समय तक रहने वाली अपकीर्ति का भी वर्णन करेंगे और सम्मानित मनुष्य के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी बढ़कर है  |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 35

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌ ॥ (३५)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे ही महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 36

अवाच्यवादांश्च बहून्‌ वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌ ॥ (३६)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
तेरे शत्रु तेरी सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से कटु वचन भी कहेंगे, तेरे लिये इससे अधिक दु:खदायी और क्या हो सकता है ?


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 37

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌ ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ (३७)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
हे कुन्तीपुत्र! यदि तू युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को प्राप्त करेगा और यदि तू युद्ध जीत गया तो पृथ्वी का साम्राज्य भोगेगा, अत: तू दृढ-संकल्प करके खड़ा हो जा और युद्ध कर |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 38

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ (३८)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा  |


(कर्मयोग का विषय)

भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 39

एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ (३९)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
हे पार्थ ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन | जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भाँति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 40

यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌ ॥ (४०)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 41

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌ ॥ (४१)

भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
हे अर्जुन ! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 42, 43

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥ (४२)

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌ ।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ (४३)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
हे पृथापुत्र! अल्प-ज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते है, जो स्वर्ग की प्राप्ति, उत्तम जन्म तथा ऎश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिये अनेक सकाम कर्म-फ़ल की विविध क्रियाओं का वर्णन करते है, इन्द्रिय-तृप्ति और ऎश्वर्यमय जीवन की कामना के कारण वे कहते है कि इससे वढ़कर और कुछ नही है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 44

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌ ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ (४४)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतिक ऎश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऎसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते है, उन मनुष्यों में भगवान के प्रति दृड़-संकल्पित बुद्धि नहीं होती है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 45

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌ ॥ (४५)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
हे अर्जुन ! वेदों में मुख्य रुप से प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है इसलिए तू इन तीनों गुणों से ऊपर उठ, हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से रहित तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त आत्म-परायण बन |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 46

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ (४६)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
सभी तरफ़ से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय के प्रति मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों से उतना ही प्रयोजन रह जाता है  |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 47

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ (४७)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं, इसलिए तू न तो अपने-आप को कर्मों के फलों का कारण समझ और कर्म न करने में ही तेरी आसक्ति हो |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 48

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ (४८)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
हे धनंजय! तू सफ़लता तथा विफ़लता में आसक्ति को त्याग कर सम-भाव में स्थित हुआ अपना कर्तव्य समझकर कर्म कर, ऎसी समता ही समत्व बुद्धि-योग कहलाती है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 49

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ (४९)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
हे धनंजय ! इस समत्व बुद्धि-योग के द्वारा समस्त निन्दनीय कर्म से दूर रहकर उसी भाव से ऎसी चेतना (परमात्मा) की शरण-ग्रहण कर, सकाम कर्म के फलों को चाहने वाले मनुष्य अत्यन्त कंजूस होते हैं |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 50

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌ ॥ (५०)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
समत्व बुद्धि-योग के द्वारा मनुष्य इसी जीवन में अपने-आप को पुण्य और पाप कर्मों से मुक्त कर लेता है। अत: तू इसी योग में लग जा, क्योंकि इसी योग के द्वारा ही सभी कार्य कुशलता-पूर्वक पूर्ण होते है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 51

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्‌ ॥ (५१)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
इस समत्व बुद्धि-योग से ऋषि-मुनि तथा भक्त सकाम-कर्मों से उत्पन्न होने वाले फलों को त्याग कर जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर परम-पद को प्राप्त हो जाते हैं |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 52

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ (५२)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को भलीभाँति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 53

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ (५३)

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा, कि......
भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा  |


(स्थिर-प्रज्ञ पुरुष के लक्षण)

भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 54

अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌ ॥ (५४)

अर्जुन ने श्री भगवान से पूछा ......
हे केशव ! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?

भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 55

श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌ ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ (५५)

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
हे पार्थ ! जब मनुष्य मनोरथ से उत्पन्न होने वाली इन्द्रिय-तृप्ति की सभी प्रकार की कामनाओं का परित्याग कर देता है, जब विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में ही सन्तोष प्राप्त करता है, तब वह मनुष्य विशुद्ध चेतना में स्थित (स्थितप्रज्ञ) कहा जाता है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 56

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ (५६)

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 57

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (५७)

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 58

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (५८)

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
जिस प्रकार कछुवा सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, उसी प्रकार जब मनुष्य इन्द्रियों को इन्द्रिय-विषयों से सब प्रकार से खींच लेता है, तब वह पूर्ण चेतना में स्थिर होता है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 59

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥ (५९)

श्री भगवान ने कहा - 
इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले मनुष्य के विषय तो मिट जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति बनी रहती है, ऎसे स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य की आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके मिट जाती है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 60

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ (६०)

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
हे अर्जुन ! इन्द्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि जो मनुष्य इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है, उस विवेकी मनुष्य के मन को भी बल-पूर्वक हर लेतीं है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 61

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (६१)

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है  |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 62

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ (६२)

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, ऎसी आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 63

क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ (६३)

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है |

भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 64

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌ ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ (६४)

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 65

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ (६५)

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है  |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 66

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥ (६६)

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ वश में नहीं होती हैं, उस मनुष्य की न तो बुद्धि स्थिर होती है, न मन स्थिर होता है और न ही उसे शान्ति प्राप्त होती है | उस शान्ति-रहित मनुष्य को सुख किस प्रकार संभव है ? 


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 67

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥ (६७)

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
जिस प्रकार पानी पर तैरने वाली नाव को वायु हर लेती है, उसी प्रकार विचरण करती हुई इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय पर मन निरन्तर लगा रहता है, वह एक इन्द्रिय ही उस मनुष्य की बुद्धि को हर लेती हैं |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 68

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (६८)

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
हे महाबाहु! जिसकी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सभी प्रकार से विरक्त होकर उसके वश में रहती हैं, उसी मनुष्य की बुद्धि स्थिर रहती है।


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 69

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ (६९)

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
जो सभी प्राणीयों के लिये रात्रि के समान है, वह बुद्धि-योग में स्थित मनुष्य के लिये जागने का समय होता है और जो समस्त प्राणीयों के लिये जागने का समय होता है, वह स्थिर-प्रज्ञ मुनि के लिए वह रात्रि के समान होता है। 


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 70

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ 

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
जिस प्रकार अनेकों नदियाँ सभी ओर से परिपूर्ण, दृड़-प्रतिष्ठा वाले समुद्र में समुद्र को विचलित किए बिना ही समा जाती हैं, उसी प्रकार सभी इच्छायें स्थित-प्रज्ञ मनुष्य में बिना विकार उत्पन्न किए ही समा जाती हैं, वही मनुष्य परम-शान्ति को प्राप्त होता है, न कि इन्द्रिय सुख चाहने वाला |


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 71

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ 

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
जो मनुष्य समस्त भौतिक कामनाओं का परित्याग कर इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-रहित रहता है, वही परम-शांति को प्राप्त कर सकता है। 


भगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 72

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥ 

श्री भगवान्‌ ने कहा - 
हे पार्थ! यह आध्यात्मिक जीवन (ब्रह्म की प्राप्ति) का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य कभी मोहित नही होता है, यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस पथ पर स्थिति हो जाता है तब भी वह भगवद्‍प्राप्ति करता है |


.................................................................................

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे कृष्णार्जुनसंवादे धर्मकर्मयुद्धयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद भगवदगीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में धर्मकर्मयुद्ध-योग नाम का पहला अध्याय संपूर्ण हुआ॥

॥ राधे कृष्ण ॥


पूरी भगवदगीता हाँ से पढ़ें -

4. चौथा अध्याय
5. पांचवां अध्याय
6. छठवाँ अध्याय
7. सातवां अध्याय
8. आठवां अध्याय
9. नौवां अध्याय
10. दसवां अध्याय
11. ग्यारहवां अध्याय
12. बारहवां अध्याय 
13. तेरहवां अध्याय
14. चौदहवां अध्याय
15. पंद्रहवां अध्याय
16. सोलहवां अध्याय
17. सत्रहवां अध्याय
18. अट्ठरहवां अध्याय

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